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हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक व विचारक, हिन्दुस्तान की आवाज

बेवजह की चीज खरीदते-खरीदते एक दिन ऐसा आता है कि जरूरत के लिए वजह की चीज बेचना पडता है, इसीलिए सोच-समझकर कदम उठाना वक्त की नजाकत है। उसी हिमायत की आज बहुत दरकार है, देष में चंहुओर व्यसन, फैषन और फंतासी जीवन की उधेडबून में खर्चीली, जहरिले और जानलेवा सामानों की भरमार है। जिसे आए दिन हम अपने घरों की शोभा बना रहे है इसी नाफिक्री में की आने वाले समय में हमारे भविष्य पर इसका क्या फर्क पडेगा इसका कोई असर दिखाई नहीं पडता। हमें तो बस आधुनिकता की दौड में अव्वल आना है। चाहे जो भी हो जाए उससे हमें क्यां हमें तो अपनी स्वार्थ सिद्धी चाहिए और कुछ नहीं। यही अख्तियारी मानस्किता रासायनिक, इलेक्ट्राॅनिक और विध्वसंक कूडा-करकट का ढेर लगा रही है जो हमारे जीवन के लिए जान लेवा साबित हो चुकी है। यह उन्मादी रवैया पर्यावरण प्रदूषण, दूषित जल, असमयक बिमारी और अप्रिय घटना का कारक बनता है। इसका मंजर दिनानुदिन कई जिदंगियों को नेस्तनाबूत करते जा रहा है। पर हालात काबू होने के बजाए बद-बदतर बनकर सुरसासुर बन गए।

ऐसा ही एक दिल दहलाने वाला हादसा मध्यप्रदेष के बालाघाट जिला मुुख्यालय से महज 5 किमी दूरी पर स्थित ग्राम खैरी में हालहि में घटित हुआ। जहां एक निजी फटाखा फैक्ट्री में विस्फोट होने की वजह से एक झटके में ही 25 लोग मौत के आगोष में बेदर्दी से समा गए। कार्य, कारण कुछ भी रहे हो पर बेकामी फटाखों ने बहुयामी लोगों को दुनिया से छिन लिया। काष! शौकिनों की बस्ती में मस्ती की बरात नहीं निकलती तो बेगुनाह कर्मवीर जिदंगी को बीच मझदार में छोड कर नहीं जाते। इसका जिम्मेवार जितनी लाफरवाही, उदासिनता तथा बेरूखी है उतना ही प्रषासन, उत्पादक और उपभोक्ता भी है। गर हम फटाखे फोडते और आतिषबाजी उडाते ही नहीं, तो फटाखे बनते ही नही ऐसा होता तो कई परिवार उजडने से बच जाते।

निर्ममता देष में ऐसी आकस्मिक घटनाएं आम हो गई है यहां-वहां बारूद के ढेर पर मौत दस्तक दे रही है लेकिन शासन-प्रषासन की कान में आज तक जंू तक नहीं रेंगी। आतिषबाजी और फटाखों पर लगाम लगाने कोई ठोस कार्रवाई जमीं पर नहीं आई प्रतिभूत उत्पाद और उपयोग के समय विनाष के तांडव ने कोहराम मचाया। ध्वनि प्रदूषित हुई, जन-धन और तन-मन के साथ देष की फिजा गमगीन हुई। इतने पर भी होष ठिकाने पर नहीं आए ना-जाने किस दिन की इंतजार कर रहे है कि बेकामी फटाखों पर रोक लगाने परहेज जता रहे है। इस धमाचैकडी में हमारा भी बहुत बढा हाथ है कि हम अपनी खुषिहाली बिन आतिषबाजी और फटाखों के नही मना सकते। मनाएगे भी कैसे हमारी शान-ए-षौकत में दाग नहीं लग जाएंगा। शादी व उत्सव में आतिषबाजी और चुनाव जितने में फटाखे नहीं चलाएं तो क्यां चलाएं यही तो हमारी खुमारी है। इससे पार पाना हमारी जिम्मेदारी है वरना यह एक दिन नासुर बन सब को निगल जाएंगी।

सचमुच में हालाते बयान फटाखे बेकामी ही है अगर इनका इस्तेमाल नहीं भी हुआ तो कोई आफत नहीं आजाएंगी। फिर किस बात को लेकर फटाखों में हम मषगूल रहते है क्यां हमारे त्योहार, शादी-बारात, चुनावी जीत और खुषियों के मौके इन्हीं पर आश्रित है। बिल्कुल भी नहीं! हम इनके बिना भी आंनद उठा सकते है। पर जिदंगियों को खतरे में डालकर नहीं। क्यां हम इसके लिए तैयार है कि बारूद को तिलांजलि देकर अपनी हाभोहवा को तंदुरस्त रखे। आगे बढकर देषविरोधी शक्तियों के हाथों में बारूदों का असला जाने से रूखे। हाॅं! औद्योगिक उत्पादनों, खनन और रक्षा मसलों में जन-जीवन को परे रखते हुए सीमित उपयोग उद्देष्यमूलक साबित होगा। आइए हम सब मिलकर फटाखों और आतिषबाजी का तिरस्कार करें। रही बात इन उद्योगों में लगे लोगों को सरकारी मदद और योजनाओं से जोडकर रोजी-रोटी कमाने का रास्ता मुहैया करवाने की जवाबदेही सरकारी तंत्र को हरहाल में निभानी पडेगी।



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