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सेन्ट्रल डेस्क : जिस तरह से अनुभवहीन खिलाड़ी अगर मैदान में आ जाए तो वह जीती हुई मैच हार सकती है यही देखने को मिला है कर्नाटक विधानसभा चुनाव में । सोनिया गांधी को ऐसा लगा कि अगर हम राष्ट्रीय युवा के रूप में राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने से देश के सभी युवा इन्हें अनुसरण कर अपना बहुमूल्य मत देकर प्रधानमंत्री यानी 2019 की लोकसभा चुनाव के लिए अपना मुखड़ा बना लेगी ।शायद वह यह भूल गई क्या 1977 का चुनाव नहीं है जो कुछ ही दिनों में पासा पलट जाएगा । यही कारण हुआ कि आज कर्नाटक के सभी युवा और शिक्षित कांग्रेस का साथ छोड़कर मोदी के साथ चलने के लिए तैयार हो गई । उन्हें महसूस हुआ कि आजादी के बाद से अभी तक कांग्रेस ने हम पर जो शासन किया , उससे हमें कुछ नहीं मिला और भारतीय जनता पार्टी की बढ़ती सरकार को उन्हें देखकर यह आशा हुई कि हमारे राज्य को भी वैश्विक स्तर पर एक बहुमूल्य स्थान दिलाएगा।
              कर्नाटक में कांग्रेस की बुरी हार से यह साफ हो गया है कि अस्तित्व के संकट से जूझ रही कांग्रेस 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बेहतर की उम्मीद नहीं की जा सकती है।  पार्टी के वरीय नेता भी इस बात को स्वीकार करते हुए कहा कि पार्टी इस वक्त अस्तित्व के संकट से जूझ रही है क्योंकि उसे एक सही अनुभव और सही नेतृत्व वाली अध्यक्ष की जरूरत है । अगर ऐसा नहीं होता है तो और सब अप्रसांगिक होने का खतरा जो आज दिख रहा है वह सदियों तक चलता रहेगा।
         .. आज की चुनौती से निपटने के लिए पार्टी नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को संयुक्त रुप से प्रयास करने होंगे । प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ कांग्रेस का सामान्य दृष्टिकोण कर्नाटक के काम नहीं आया।  कांग्रेस ने 1996 से 2004 तक के चुनाव संकट का सामना किया था पार्टी में 1977 में चुनावी संकट का सामना किया था जब वह इमरजेंसी के कारण चुनाव हार गई थी । कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उनकी पहली चुनावी परीक्षा भी जिसमें वह फेल हो गए।  कांग्रेस की सामूहिक शक्ति  भी मोदी का मुकाबला नहीं कर सकी जिसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस 122 सीटों पर रहने वाली आज 62 सीट तक सिमट कर रह गई है।

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