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25 अक्टूबर दीवान बहादुर एम एम मुलना साहब जन्म जयंती विषेष आलेख  

(हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक व विचारक)

तडफते व्यक्ति को देख दुःखी होने से महानता नहीं बल्कि उसे पीडामुक्त करने की साहसिक पहल में ही मानवता दृष्टिगोचर होती हैं। उक्त विचार मानवमात्र के प्रति मानेक जी मेरवान जी मुलना की सद्भावनाओं को ही उजागर नहीं करते, अपितु इन विचारों में उनकी इच्छाषक्ति, प्रगतिषील विचारधारा और दान क्षमता का स्मरण कराती हैं। कानुनविद् एम. एम. मुलना साहब का जन्म बम्बई के फारसी परिवार में 25 अक्टूबर 1868 को हुआ। लोग इन्हें प्यार से आदरपूर्वक मुलना साहब के नाम से संबोधित करतेे थे। उन्होंने नागपुर के माॅरिस काॅलेज से 1891 में एम.ए. की षिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् 1892 में विधि की उपाधि प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण  किया।
फलस्वरूप उन्हें अतिरिक्त सहायक आयुक्त नियुक्त किया गया। इस पद पर दो वर्ष तक कार्य करते ह्रुए ही आपने बालाघाट में ही सारी जिदंगी बिताने का इरादा कर लिया और फिर आप हमेषा यहीं के होकर रह गये। मुलना साहब आजीवन अविवाहित रहे। बालाघाट जिले में डिस्ट्रिक्ट कौंसिल की स्थापना से निरंतर 35 वर्षो तक आप उसके अध्यक्ष निर्वाचित होते रहे। आपकी सार्वजनिक सेवाओं से अभिभूत होकर आपको खान बहादुर की मानद पद्वी दी गई। जिसे बाद में दीवान बहादुर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। तत्समय विष्व युद्ध के दरम्यान मानवता को समर्पित सेवाओं के लिये आपको स्वर्ण पदक व सनद् से सम्मानित किया गया।
मुलना साहब का सम्पूर्ण जीवन काल्य दीन दुखीयों और जरूरतमदों की सेवाओं में समर्पित रहा। इतना ही नहीं उन्होंने खेलकूद, षिक्षा और तकनीकी षिक्षा को प्रोत्साहित करने का हरदम प्रयास किया। फलश्रुति बालाघाट में शासकीय पाॅलीटेक्निक महाविद्यालय की स्थापना साकार हुई। एम. एम. मुलना साहब सही अर्थो में एक महामानव और परम् दानवीर थे। दानगाथा को शब्दों में अभिलेखित करना सुरज को रोषनी दिखाने के समान हैं। जिस दानषीलता, सृजनषीलता से आज बालाधाट शहर जगमग हो रहा हैं वह इस विभूति की अनुपम भेंट हैं। काष! यह दानवीर नहीं होता तो शायद ही बालाघाट नगर की यह स्थिति होती।
जनश्रुति! है कि सम्प्रस्थिति जन्य इस दानदाता और मानवता के पुजारी के अद्भूत कार्यो का अधिकांष बालाघाट जिले वासियों को कतई स्मरण नहीं होगा। इसकी अनुभूति करना मेरा, आपका और जिले वासियों का नैतिक बोध हैंे। आईये, अब हम मुलना साहब के अप्रितम स्वतः दान से संपन्न अलौकिक कार्यो को अपने मानस पटल पर पुनः स्मृत करे। यथेष्ट बालाघाट नगर के लिए जलप्रदाय योजना का निर्माण और अमूल्य बस स्टैण्ड के समीप सार्वजनिक धर्मषाला, उद्यान की भूिम व मुलना स्टेडियम की जमीनादि। सहित पाॅलीटेक्निक काॅलेज के लिए भूखण्ड और तो और स्वंय का आवासीय बंगला का मुकर्रर। इनकी दानवीरता यहीं नहीं थमती वरन् अपनी समस्त संपत्ति के साथ-साथ तत्कालिन समय में करोडो रूपयों के शेयर जनहित के अभिप्राय समर्पित कर दिया। जो यथास्थिति अरोबों-खरबों के हो गये होंगे। बावजूद मुलना साहब के सपने कब होंगे, साकार की मुराद अधूरी ही है। यथा अब, सरोकार है तो मुलना साहब के सपने को साकार करने की सराबोर से हमारा बालाघाट गूले-गुलजार होगा।
बहराहल, दीवान बहादुर मुलना ने अपनी मलकियत और शेयर्स के अभिदान तथा उपयोगिता के लिए लिखी वसीयत में अनेक कार्यो को बालाघाट नगर वासियों के हित में पूरा करने का जिम्मा एक ट्रस्ट को सौंपा था। इस ट्रस्ट ने मुलना स्टेडियम और सार्वजनिक धर्मषाला निर्माणादि अनेक कार्य करवाये भी। प्रथम ट्रस्टी सदस्यों को दीवानजी की वसीयत के मुताबिक किसी व्यक्ति को ट्रस्ट का ट्रस्टी एवं सदस्य नामजद करना था। परंतु उन्होंने ऐसा किया नहीं। उपरांत नियमानुसार इस ट्रस्ट के पदेन अध्यक्ष जिला कलेक्टर बन गये और ट्रस्ट का मकसद खानापूर्ति के नाम पर ठंडे बस्ते में पड गया। इसे विडंबना कहंे या दर्भाग्य जिस षख्सियत ने अपना सब कृछ अपनी जन्मभूमि बम्बई के बजाय अपनी कर्मभूमि बालाघाट में सर्वत्र न्यौछावर कर दिया उनके ही सपने को साकर करने में कोताही बरती जा रही !
अतएव 2 जुलाई 1957 को 89 वर्ष की उम्र में शांतचित दीवान बहादुर मुलना ने दानवरीता और मर्मस्पर्षीता की जो मिसाल पेष की हैं, उसका उद्धरण भूत-भविष्य-वर्तमान में ढूंढ पाना असंभव हैं। अमिट, ऐसे अजातशत्रु की बहुश्रुत विचारणा क्षण-भंगुर नहीं हो सकती। सहोदय इनकी स्मृति, श्रुति और सपनों को अंतस में संजोकर युगांतर गुंजायमान रखना ही सच्ची श्रद्धांजली होगी।

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