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हिन्दुस्तान की आवाज़, मुंबई, शमा ईरानी

बॉलीवुड मूवीज में क्राईम थ्रिलर और कोर्ट-रूम ड्रामा को दर्शकों द्वारा पसंद किया जाता रहा है. कई फ़िल्में देश की कानून और न्याय व्यवस्था पर सवाल भी उठाती हैं, निर्देशक अशोक नन्दा की क्राइम थ्रिलर 'वन डे जस्टिस डिलिवर्ड' भी इसी तरह के कई प्रश्न उठाती है और जो आजकल अपने अनोखे कांसेप्ट की वजह से चर्चा में है। अनुपम खेर, ईशा गुप्ता, मुकुंद मिश्रा के अभिंय से सजी फ़िल्म वन डे जस्टिस डिलिवर्ड आज के समाज में फैले भ्रष्टाचार और अपराधी को सज़ा दिलाने के लिए क़ानून को हाथ में लेना सही है या गलत, फिल्म इस सन्दर्भ में है। ज्यूडिशियल सिस्टम पर बनी इस फ़िल्म के निर्देशक अशोक नंदा इससे पहले अंग्रेजी फिल्म 'फायर डांसर', हिंदी फ़िल्म 'हम तुम और मॉम' और 'रिवाज' बना चुके हैं। 5 जुलाई को रिलीज़ होने जा रही फ़िल्म 'वन डे जस्टिस डिलिवर्ड' के निर्माता केतन पटेल, कमलेश सिंह कुशवाहा और सह-निर्मात्री स्वाति सिंह हैं. इस फिल्म के बारे में और आगे की योजना के सन्दर्भ में अशोक नंदा से लम्बी बातचीत के खास अंश पेश किये जा रहे हैं.

इस फ़िल्म को बनाने का आईडिया आपको कैसे आया ?

* यह मेरी चौथी फिल्म है. थ्रिलर मेरा फेवरिट जौनर रहा है, इस बार मैं क्राइम थ्रिलर बनाना चाहता था. जब मेरे सामने यह सब्जेक्ट आया तो मुझे लगा कि यह काफी नया है और एंगेजिंग है. ज्युडिशियल सिस्टम के खिलाफ सब्जेक्ट पर आधारित फिल्म काफी दिनों से बॉलीवुड में नहीं आई है, हमें अंधा कानून या आखिरी रास्ता जैसी फिल्मे याद आती हैं. यह रीयलिस्टिक फिल्म है. कुछ सच्ची घटनाओं से प्रेरित सब्जेक्ट है. आजकल ऐसा हो गया है कि लोग पुलिस पर हाथ उठा देते हैं तो आम आदमी की सुरक्षा का क्या है? लोगों को पुलिस और कानून का कोई डर नहीं रहा, आज यह हालात हो गए हैं ऐसे में इसका समाधान क्या है? फिर आम आदमी को भी किसी भी कीमत पर न्याय चाहिए, चाहे इसके लिए उसे किसी को मारना पड़े या किसी को किडनैप करना पड़े.

क्या इस फ़िल्म में अनुपम खेर ही आपकी फर्स्ट चॉइस थे ?

* डी नीव फ़िल्म्स और ए सिनेमा फ्राइडे प्रोडक्शन के बैनर्स तले निर्मित वन डे जस्टिस डिलिवर्ड में अभिनेता अनुपम खेर रिटायर्ड जज त्यागी का किरदार निभा रहे हैं. अनुपम जी के किरदार के कई रंग हैं. घर में वह बड़े प्यार से रहते हैं, बच्चो के साथ खेल भी लेते हैं, कोर्ट में सीरियस भी है, क्रिमनल्स के लिए हार्ड भी है, तो ऐसे किरदार को जब हम देखते हैं तो हमें सारांश और कर्मा जैसी फिल्मे याद आती हैं. इसलिए इस रोल के लिए मेरी पहली पसंद अनुपम खेर ही थे। इसके अलावा रिटायर्ड जज के लिए जिस उम्र के फनकार की जरूरत थी उस लिहाज से भी अनुपम जी सही थे। तो यह सब देखकर अनुपम खेर से हमने अप्रोच किया. शुरू में यह रोल करने को लेकर बहुत असमंजस में थे उनका सवाल था कि हाई कोर्ट के जज को कोई कैसे थप्पड़ मार सकता है? फिर हमने कई ख़बरों की कटिंग उन्हें दिखाई, जिसमे जज को मारने की बात थी. जब यह सीन जस्टिफाई किया गया तब उन्होंने इसे करने के लिए हामी भरी. इस थप्पड़ की वजह से ही कहानी में मोड़ आता है. अपने रिटायरमेंट के बाद जस्टिस त्यागी को लगता है कि सुबूतों के अभाव और कानूनी जटिलताओं के चलते उन्हें कुछ अपराधियों को छोड़ना पड़ा था, इनमें से कुछ उनके आस-पास के लोग भी हैं. एक ऐसे ही केस में पीड़ित परवीन बीबी (ज़रीना वहाब) अपने बेटे की मौत के ज़िम्मेदार अपराधियों को सज़ा ना मिलने पर न्यायालय परिसर में जस्टिस त्यागी को थप्पड़ मारती हैं. ये थप्पड़ कहानी में कई नए मोड़ लेकर आता है. उस एक दिन ने उस जज की जिंदगी बदल कर रख दी इसलिए फिल्म का नाम है वन डे. इस सीन में झारखण्ड हाई कोर्ट की बिल्डिंग लिखी हुई दिख रही थी जिस पर सेंसर बोर्ड को एतराज था. उन्हें एनओसी चाहिए थी. इसी वजह से रिलीज की डेट आगे बढ़ गई.

यह फिल्म क्या कहना चाहती है?

*वन डे जस्टिस डिलीवर्ड फ़िल्म आपको सोचने पर मजबूर करती है कि अन्याय के खिलाफ़ लड़ने के लिए कोई किस हद तक जा सकता है और अगर कानूनी ढंग से न्याय ना मिले तो क्या न्याय के लिए कानून को अपने हाथों में ले लेना सही है या ग़लत? इस तरह के कई जरुरी और अहम सवाल उठाती है यह फिल्म. कॉमन मैन के लिए कौन खड़ा होगा. आम तौर पर यह समझा जाता है कि अगर किसी की ओर से सरकारी वकील खड़ा है तो वह केस हार ही जायगा. हालाँकि सरकारी वकील ज्यादा पावरफुल होना चाहिए, उसे इंसाफ दिलाना चाहिए. अमीर और फेमस आदमी केस जीत जाता है, ऐसा नहीं होना चाहिए. एक मिडिल क्लास और साधारण व्यक्ति को भी न्याय पाने का अधिकार है। यह फिल्म इन्साफ में होने वाली देरी पर बेस्ड है अगर इंसाफ में देरी होती है इसका मतलब यह है कि इन्साफ नहीं मिला. 'जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनायड'.क्या हमारे ज्युडेशरी सिस्टम में बदलाव की जरुरत है, क्या मुक़दमे के फैसले की एक डेड लाइन होनी जरुरी है? इस फिल्म में हमने सबको जस्टिफाई किया है.

ईशा गुप्ता की इमेज एक ग्लैमरस गर्ल की रही है पर इस फ़िल्म में उनका रोल क्या है ?

* ईशा गुप्ता का फ़िल्म में बेहद महत्वपूर्ण रोल है। वह एक सख्त पुलिस की भूमिका में है। ईशा बात कम करती है और हाथ ज्यादा चलाती है. इस किरदार को उन्होंने बखूबी निभाया है.

फ़िल्म के म्यूजिक के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

* फिल्म में चार गाने हैं, जिन्हें कमर्शियल वैल्यू और सिचुएशन को ध्यान में रखकर क्रिएट किया गया है। एक टाइटल सोंग है जो थीम सोंग है. यह एक सेमी रॉक गीत है. इसके लिरिक्स प्रभावी हैं. एक शादी का सिचुएशन्ल गीत है. ईशा का एक इंट्रो सोंग है. एक क्लब सोंग है जिसके बेकड्राप में एक किडनैप होता है. फिल्म में एक रोमांटिक गीत भी था लेकिन फिल्म में उसकी सिचुएशन नहीं निकल सकी. फिल्म की अधिकतर शूटिंग झारखण्ड में हुई है.

आज दर्शकों को कंटेंट बेस्ड मूवीज पसंद आ रही हैं, ऐसे में आपको अपनी इस फ़िल्म से कितनी उम्मीदें हैं?

* देखिये हमारी फिल्म भी एक कंटेंट वाली फिल्म है जिसमे बेहतरीन मैसेज भी है. अब दर्शक काफी समझदार हो गए हैं, वे कहानी में नयापन और गहराई देखते हैं। इस फिल्म में नयापन भी है गहराई भी, जो ऑडियंस के दिलों को जरुर छुएगी. मैं समझता हूँ कि इन दिनों का यूथ बेहद जागरूक है वह बदलाव ला सकता है। मैं अपनी फिल्म के ज़रिये ऑडियंस तक मैसेज पहुँचाना चाहता हूँ कि इंसाफ पाना हर वर्ग का हक है। इस फ़िल्म में कई ऐसे डायलॉग है जो ऑडियंस को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करेंगे।

इस फिल्म के बाद आपके अपकमिंग प्रोजेक्ट्स कौन से होंगे?

* इसके बाद एक एक्शन कॉमेडी थ्रिलर फिल्म बनाने की प्लानिंग है. जल्द ही स्टार कास्ट के साथ उसकी घोषणा की जाएगी.

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