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रोटी-कपडा-मकान जीवन के अनिवार्य तत्व थे,  दौर में दवाई-पढाई-कमाई-आवाजाई और वाई-फाई जुड गए हैं । क्या इनके बिना अब जीवन की कल्पना की जा सकती हैं, कदाचित नहीं ! हम बात करें शि‍क्षा और स्वास्थ्य की तो वह दयानतहारी बनी हुई हैं, उसमें सुधार की और अधि‍क गुजांईश है। गौरतलब संविधान में शि‍क्षा और स्वास्थ्य मौलिक अधिकारों में शामिल हैं लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण ये दोनों ही मौलिक आवश्यकताऐं अभी भी आम आदमी से दूर ही हुए है। यह दूरियां कब तक बनी रहेंगी यह यक्ष प्रश्न झंझकोरता है। हालातों में एक गरीब बेहतर इलाज और अच्छी तालीम के लिए तरसता है। आखिर! यह व्यथा इन्हें कब तक झेलनी पडेगी नामूलम है।

खोजबीन में मुख्य वजह शि‍क्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार की बार-बार बदलती नीतियां, भ्रष्टाचार और जिम्मेवारों की गैरजवाबदेही सामने आती हैं। कारणवश शि‍क्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी संस्थानों न तमाम लूट खसोट के बावजूद अपनी जडें जमा ली हैं। अब तो सरकार, सरकारी स्कूलों को भी निजी हाथों में सौपने की तैयारी में हैं। अमलीजामा में जरूरतमदों के लिए स्वास्थ्य के साथ-साथ शि‍क्षा भी दूभर हो जाएगी।

अलबत्ता, सरकारों ने भले ही शि‍क्षा का अधिकार अधिनियम, शि‍क्षा गारंटी, सर्वशि‍क्षा और स्कूल चलो अभियान जैसी महत्वकांक्षी योजनाएं तो बनाई पर वास्तविकता यह है कि सरकारी स्कूलों में न बैठने की जगह हैं, न शि‍क्षक, न आधुनिक शि‍क्षा के संसाधन। अब सरकारी स्कूलो के हालात यह हो गये हैं कि आम इंसान तो क्या एक राह चलता भिखारी भी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में भेजने से कतरा रहा हैं।

फिलहाल, निजी शालाओं में जब लोग बच्चों को दाखिला दिलाने के लिये जाते हैं तो उनके पैरों तले जमीन खिसक जाती हैं। सर्वाधिक लूटखसोट बडे समूह द्वारा संचालित ऑलीशान भवनों से सुस्सजित महिमा मंडितों से विभूषित राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय और बोर्डिंग नाम से युक्त सीबीसीई मान्यता प्राप्त व जैसी अग्रेंजी स्कूलों में होता हैं। जहॉ अनाप-शनाप शुल्क और विविध पोशाके, पुस्तकें, प्रतियोगिता, प्रवेश परीक्षा आदि गतिविधियुक्त स्कूलों में प्रवेश के लिए भारी जतन-यतन किये जाते हैं। विपरित स्थानीय आवश्कताएं आधारित ताम-झाम विहिन हिन्दी व अग्रेंजी माध्यम धारित स्कूलों में शि‍क्षा अध्ययन की लालसा कम होती जा रही हैं। मूलतः शि‍क्षा की चिंता किए बिना, अच्छा स्कूल चाहता है देश, स्कूल की चिंता किए बिना, अच्छा देश चाहते है लोग।।

      भांति ही सरकार ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक नहीं अनेक योजनाएं तो बनाई हैं, लेकिन उन योजनाओं में कभी बजट नहीं रहता और रहता भी हैं तो अमल में नहीं लाया जाता, तो कभी उनका लाभ पात्रों को नहीं मिल पाता। इसी बीच चिकित्सकों, नर्सिग व पॅरामेडिकल कर्मीयों और पैथोलॉजी, रक्त व नेत्र बैंक, रेडियोलॉजी उपकरण की कमी सहित मूलभूत भवन, वाहन अनुलब्धता में आमजन सुलभ स्वास्थ्य उपचार से वंचित रह जाते हैं। तथापि पहुंच विहिन, असहाय अस्वस्थ्य का इलाज कैसे होगा यह गंभीर सवाल आह्रलादित करता हैं। वीभत्स, सरकारी अस्पतालों में बेबश, लाचार लोग ही इलाज कराने पहुंचते हैं वरना निजी चिकित्सालयों में मरीजों की लंबी कतार लगी रहती है।

मद्देनजर, हालिया देश में औसतन 20 हजार की जनसंख्या में एक चिकित्सक उपलब्ध है। पूर्व में उल्लेखित वीओएचआर  (वोर) कमेटी की अनुशंसानुसार पांच हजार की आबादी पर एक चिकित्सक होना चाहिए, जो प्रभावी नही हुआ हैं। हिसाब से आज हजारों की संख्या में चिकित्सकों की आवश्कता है। इसकी पूर्ति चिकित्सकों की संख्या में भारी वृद्धि करके की जा सकती है। तब ही मांग के अनुसार पूर्ति होगी, इस अनापूर्ति से कैसे समग्र उपचार का लक्ष्य अर्जित होगा। यह एक अत्यंत विचारणीय प्रश्न है? यह तो ‘एक अनार सौ बीमार ‘ कथन का चरितार्थ है। इस पर शासन-प्रशासन को गंभरीता से विचार कर सर्वोचित हल निकालना ही होंगा। अन्यथा अस्पतालो, चिकित्सकों के अभाव में झोला छाप डॅाक्टर, झांड-फूंक या तंत्र-मंत्र पद्धति से आम जन अपना उपचार ग्रहण कर जान बचायेगें या देगें....!

वस्तुतः शासकीय स्कूलों और चिकित्सालयों की स्थिती में अमूल-चूल नव-परिवर्तन लाकर शासकीय योजनाओं को कागजों पर चिपकाये ना रखकर धरातल पर लाना ही एकमेव हल हैं। दायित्व मात्र सरकारी तंत्रों व पहरेदारों का ही नहीं वरन् हम सब का नैतिक कर्तव्य हैं, इसे हरहाल में निर्वहन करना पडेगा तभी दूरियां नही अपितु नजदीकियां बढेंगी।

 हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक व‍ विचारक

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