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हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक व विचारक

माँ है तो हम है, हम है तो जहान हैं। मॉं की छाव से बडी कोई दुनिया नहीं। मॉं के चरणों में जन्नत हैं, और उस जन्नत की मन्नत सदा-सर्वदा हम पर आसिन हैं। मॉं की बरकत कभी भेदभाव नहीं करती वह समान रूप से सभी बच्चों पर बरसती हैं। मॉं के लिए कोई औलाद तेरी-मेरी नहीं बल्कि मेरी ही होती हैं। एक माँ के आंचल में सब बच्चे समा जाते हैं पर सब बच्चों के हाथों में एक मॉं नहीं समा सकती, इसीलिए मेरी मॉं, तेरी मॉं की किरकिरी में मॉं परायी हो जाती हैं। क्यां मॉं का भी बंटवारा हो सकता हैं आज मेरी तो कल तेरी और परसों किसी की नहीं। हालात तो बंटवारे की हामी भरते है बानगी में वक्त के साथ-साथ खून का अटूट बंधन ममता के लिए मोहताज हो जाता हैं। मॉं बेटा-बेटा कहती हैं और बेटा टाटा-टाटा कहता हैं।
    वाह! रे जमाना तेरी हद हो गई जिसने दुनिया दिखाई वह सरदर्द होकर तोल मोल के चक्कर में बेघर हो गई। यह एक चिंता की बात नहीं वरन् चिंतन की बात हैं कि आखिर ऐसा क्यों और किस लिए हो रहा है? इसका निदान ढूंढे नहीं मिल रहा है या ढूंढना नहीं चाहते हैं। चाहे जो भी इस वितृष्णा में दूध का कर्ज मर्ज बनते जा रहा है जो एक दिन नासुर बनकर मानवता को तार-तार कर देगा, तब हमें अहसास होगा कि माता,  कुमाता नहीं हो सकती अपितु सपूत कपूत हो सकते हैं।
   बहरहाल, पूत के पांव जब पालने में होते है तब से वो मॉं, मॉं की मधुर गुजांर से सारे जग को अलौकिक कर देता हैं। अपनी मॉं के लिए रोता हैं, बिलकता हैं और तडपता हैं मॉं की गोद में बैठकर निवाला निगलता हैं। उसे तो चहुंओर मात्र दिखाई पडती है तो अपनी मॉं  और मॉं, मॉं कहकर अपनी मॉं पर अपना हक जताता हैं। यही ममतामयी माया मॉं-बेटे के अनमोल रिश्ते का बेजोड मिलन हैं। लगता है यह कभी टूटेगा नहीं पर काल की काली छाया इस पवित्र बंधन को जार-जार करने में कोई कोर कसर नहीं छोडती। देखते ही देखते मेरी मॉं, तेरी मॉं और दर-दर की मॉं बन जाती हैं।
   दरअसल, जवान जब आधुनिक व भौतिकी उलझन में नफा-नुकसान का ख्याल करते है। तब बूढे मॉं-बाप बेकाम की चीज बनकर बोझ लगने लगते हैं। जब इनसे कोई फायदा नही तो इन्हें पालने का क्यां मतलब? जिसने कोख में पाला उसकी छाया बुरी है।  इसी मानस्किता को अख्तियार किये तथाकथित बेपरवाह खूदगर्ज अपनी जननी को तेरी मॉं-तेरी मॉं बोलकर अपनी जिम्मेदारियों से छूटकारा चाहते है। वीभत्स चौथे पहर में पनाह देने के बजाय वृद्धाश्रम में ढकेल कर या कूड-कूडकर जीने के लिए हाथों में भीख का कटोरा थमा देते है। जहां वह बूढी मॉं मेरे बेटे-मेरे बेटे की करहाट में दम तोडने लगती हैं कि कब मेरा बेटा आएगा और प्यार से दो बूंद पानी पिलाएंगा।
    हां! ऐसे कम्बखतों को फिक्र होगी भी कैसे! कि मॉं के बिना जीना कैसा। जा के पूछे उनसे जिनकी मॉं नहीं है! वे तुम्हें बताएगें कि मॉं होती क्या है! और नसीब वाले भाई-भाई लडते हो कि मॉं तेरी हैं, मॉं तेरी हैं। यह कौन सा इंसाफ है कि बचपन में मॉं मेरी और जवानी मॉं तेरी! तेरी नही तो फिर बूढी मॉं किसकी! अच्छा नहीं होगा कि मॉं को हम अपनी ही रखे क्योंकि मॉं तो मॉं होती है तेरी ना मेरी चाहे वह जन्म देने वाली हो या पालने वाली किवां धरती मॉं हो। वह तो हमेशा बच्चों का दुःख हर लेती है और सुख देती हैं। तो क्या हम उस मॉं को जिदंगी के अंतिम पडाव में बांट दे या सुख के दो निवाले और मीठे बोल अर्पित कर दे। ये जिम्मेदारी अब हमारी है पेट मे सुलाने वाली मॉ को पैरों में सुलाये या उसके पैरों को दबाये। समर्पित, स्मरणित अभिज्ञान माँ के हिस्से नहीं होते अपितु माँ के  हिस्से में हम रहते है ।

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