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आगरा, दुनिया भर में आगरा  की जरदोजी के कद्रदान बढ़ते जा रहे हैं लेकिन इस आकर्षक काम को करने वाले कारीगरों की जिन्दगी में दिनोदिन और अंधेरा गहराता जा रहा है। आठ घंटे की कड़ी मेहनत के बाद कारीगरों के हाथ आते हैं 80 से 150 रुपये। इतनी कम नफरी (दैनिक मजदूरी) में पेट भरना मुश्किल है, अगर बीमार पड़ गये तो जिन्दगी अल्लाह भरोसे ही रहती है। जरदोजी का काम इतना महीन होता है कि कारीगरों की आंख की रोशनी पर भी असर पड़ता है। आंखें कमजोर हुई और उम्र का असर अंगुलियों पर पड़ा तो काम से हाथ धोना पड़ता है। प्रतिदिन 80 से 150 रुपये की कमाई में कैसे चल रहा परिवार का खर्च और कैसे तालीम हासिल कर रहे हैं इनके बच्चे? ये पूछने वाला कोई नहीं है। इतनी कम मजदूरी में ये न तो अच्छा खा सकते हैं, न ही अच्छा पहन सकते हैं, न ही अच्छे डाक्टर को दिखा सकते हैं। ऐसे में घर का खर्च चलाने के लिए लोग मजबूरन अपने बच्चों को भी इसी काम में लगा देते हैं। बच्चों को इस फन को हासिल करने में महीनों उस्तादों की शार्गिदी में रहना पड़ता है, तब जाकर कहीं इन्हें काम की कीमत मिलनी शुरू होती है। वह भी सिर्फ 40-50 रुपये। वर्षो से जरदोजी का काम करते-करते आंखें खराब हो जाने के बाद अब रहीस (नाम बदला गया) पान की दुकान चला रहे हैं। वह कहते हैं कि इस काम से बस सूखी रोटी का इंतजाम हो सकता है और उम्र ढलने के साथ काम छूटना तय है। मेरी तरह दर्जनों कारीगर यह काम छोड़ कर चाय-पान की दुकानें या खोमचा चला रहे हैं। गुलज़ार ने जरदोजी का काम छोड़ कर कुछ समय पहले ही पान की दुकान खोली है। 54 वर्षीय गुलज़ार बताते हैं कि उन्होंने 12-13 साल की उम्र में जरदोजी का काम करना शुरू किया था, तब उनको बीस रुपये मिलते थे। अब इस उम्र में उन्हें मात्र 80 रुपये नफरी मिल रही थी, जिससे परिवार का खर्च चलाना मुश्किल हो गया था। तब जरदोजी का काम छोड़कर पान की दुकान खोल ली। अब वह पहले से बेहतर अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे हैं। असलम खान गुलज़ार  से ज्यादा खुशकिस्मत हैं। उनकी उम्र लगभग 70 वर्ष है और उन्हें 100 रुपये नफरी मिल रही है। फिर भी असलम कहते हैं कि हमसे अच्छे मजदूर हैं, जो प्रतिदिन 250 रुपये कमा रहे हैं। वह बताते हैं कि जब उन्होंने काम सीखना शुरू किया था तो इतने छोटे थे कि ईट पर बैठते थे, तब कपड़े पर काम कर पाते थे। उस वक्त 4-5 रुपये हफ्ता मिलता था। काफी दिन उस्तादों की शार्गिदी में रहने के बाद ढाई रुपये नफरी मिलने लगी। सरदार अली ने भी कम नफरी की वजह से जरदोजी का काम छोड़ दिया। उन्होंने फरवरी 2014 में जनरल स्टोर खोल लिया। सरदार अली  7-8 साल की उम्र में जरदोजी के काम पर बैठे थे। 13 साल की उम्र में उन्हें 30 रुपये नफरी मिलने लगी। जनवरी में उन्हें 120 रुपये नफरी मिल रही थी लेकिन उससे उनका गुजारा नहीं हो पा रहा था, जिस वजह से उन्हें यह काम छोड़ना पड़ा। नसीम ने भी जरदोजी का काम छोड़ा और एक छोटी सी गुमटी में पान मसाला व रोजमर्रा की जरूरत के कुछ सामान बेचने लगे। नसीम  ने लगभग दस वर्ष की उम्र में काम सीखना शुरू किया था। शुरू में उनको 20 रुपये नफरी मिलती थी। उन्होंने जब दो साल पहले काम छोड़कर दुकान खोली थी, तब उन्हें 80 रुपये नफरी मिल रही थी। वसीम खान 1961 से जरदोजी का काम कर रहे हैं। उस समय उन्हें 60 रुपये महीना मिलता था। 1969 से उनको छह रुपये नफरी (प्रतिदिन) मिलने लगी। आज 60 साल की उम्र में उन्हें 150 रुपये नफरी मिल रही है, जिससे वह अपने परिवार का खर्च चला रहे हैं। जरदोजी का काम छोड़ कर दूसरा काम करने की जिनमें हिम्मत थी, वे तो निकल गये लेकिन बाकी कारीगर मजबूरी में इस कला को आगे बढ़ा रहे हैं। कुछ कारखानेदार ही वाजिब नफरी देते हैं। कारखानेदार इस संबंध में कहते हैं कि जिसका जैसा काम होता हैं उसको उसी के हिसाब से नफरी दी जाती है। शकील खान  ने बताया कि कारीगरों को 80 से 120 रुपये नफरी दी जा रही है। वहीं कारखानादार हाजी रज़ा बताते हैं कि कारीगरों को उनके हुनर के हिसाब से 85 से 100 रुपये प्रतिदिन दिये जा रहे हैं। कारखाना मालिक रोशन अंसारी 110 रुपये, मीसम 90 से 135 रुपये और शबाब 100 रुपये मजदूरी दे रहे हैं। मोहम्मद फैजान के कारखाने में 150 रुपये प्रतिदिन दिये जा रहे हैं
नेशनल अदीब खैरमक़दम सोसायटी की कोर्डिनेटर सना उमरी  ने बताया कि इस समय 250 से 300 नफरी होनी चाहिये। इसके लिए 2007 से उत्तर प्रदेश सरकार से मांग कर रहे हैं लेकिन बस आश्वासन मिला। कारीगरों ने निकाला रास्ता नफरी कम होने की वजह से कई कारीगरों ने कारखानों में काम करना छोड़ दिया और अपने घरों में ही काम करना शुरू कर दिया है। घर में पूरा परिवार मिलकर काम करता है और दुकानदारों को तैयार पीस बेच कर मुनाफा कमाता है, जो कारखाना मालिकों से मिलने वाले मेहनताने से अधिक होता है। सना के मुताबिक नफरी न बढ़ने का एक कारण यह भी है कि जो नफीस और महीन काम पहले होता था, वो अब नहीं हो रहा है। अब कढ़ाई के सरल टांके बनाये जा रहे हैं। जैसा काम, वैसा ही दाम कारीगरों को मिलता है। जिस जरदोजी से आगरा  की पहचान थी, उसे बनाने वाले कारीगर अब नहीं मिलते।  

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