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हिन्दुस्तान की आवाज, हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक व विचारक

देश के ऊर्जावान जनप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का 67 वां जन्म दिन हालिया सेवा संकल्प के रूप में मनाया गया। मौके पर स्वच्छता ही सेवा अभियान पखवाडे का शंखनाद हुआ। हैं-ना-ए कमाल की बात! कोई व्यक्ति अपनी सालगिरह की खुषियां गदंगी के साथ बिताएं वह भी प्रधानमंत्री जैसे गौरवामयी पद पर आसिन जननायक। जहां एक ओर जन्मदिवस की यादों में लोग हीरा-मोती तक परोस देते है वहां देष के प्रधान सेवक हरदम कूडा-करकट उठाने की पहल को पूजा कहते है। इतना ही नहीं राष्ट्रीय पर्वो और अन्य ऐतिहासिक क्षणों पर ‘स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत’ का आव्हान प्रधानमंत्री गतिमान रखे हुए हैं।
परिपालन में गदंगी मुक्ति आंदोलन के सिपाही मैदान में दमदारी से जुटे है। वहीं मौकापरस्त अनुयायी सफेदपोष, प्रबुद्ध-अभिजात्य वर्ग और लालफिताषाही सफाई की दिखाई में परछाई खिचवाई तथा मोटी कमाई की जुटाई में अभियान का बेरहमी से माखौल उडा रहे है। बेफ्रिकी में शालिनता के बहाने चेहरा दिखाने, राजनीति चमकाने और समाज सेवी का तमगा लगाने के इरादे से जवाबदार और जिम्मेदार मलिनता मिटाने के ठेकेदार बन बैठे है। जनाब! बनेंगे क्यों नहीं कचरे को सूफडा साफ करने का उस्तुरा जो इन्हें मिल गया है फिर हजामत करने में देर किसलिए। महातत जय-जयकार, लच्छेदार भाषण, गुच्छेदार माला और जानदार तस्वीर का रिवाज नेतागिरी के वास्ते निभाना तो पडेगा।
बकौल, सफाई के नाम मुंह दिखाई की रस्म से स्वच्छता पखवाडा को पाखंड के आखडें में तब्दील होते देर नहीं लगी। बेहतरतीब आज भी देष में शालाओं, सार्वजनिक स्थलों और ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के घर शौचालय नदारद हैं। अभाव में वंचित तपका खुले में शौच करने मजबूर हैं। बदहाली प्रतिदिन लाखों टन मानवी मल खुले में गिरता हैं। तकरीर सामान्यतः 80 प्रतिषत रोग अस्वच्छता के कारण होते हैं, कोपभाजन से 5 वर्ष की उम्र तक के 1000 बच्चों मे से 70 बच्चे बेमौत मर जाते हैं। चपेट में ना जाने और कितने लोग बजबजाती गंदगी से लहुलुहान होकर अपनी जान गवाते होंगे?
बदस्तुर, शौचालयों की दुविधा माताओं, बहनों और वृद्धो व बीमारों की पीडा और शर्मिदगी का कारक बनती हैं। अलबत्ता जिनके पास शौचालय की सुविधा है वह भी खुले में शौच करने के आदी हैं। शायद! संकुचितता, अषिक्षा और महत्व की अज्ञानता आडे आती हो। गौरतलब विद्यालय, सार्वजनिक स्थलो, शासकीय कार्यालयों और बस स्टैण्ड व रेल्वे स्टेषनों में उपलब्ध शौचालय दुव्यर्थाओं, बदहवासी के साथ-साथ संक्रामक रोगों का दूसरा कोप गृह हैं। यह ना तो संरक्षित, व्यवस्थित और उपभोगी हैं तथापि इनकी मौजूदगी का क्या मतलब? लगता है इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है या लेना चाहते नहीं? वस्तुतः शौचालय नहीं बल्कि स्वच्छ शौचालय व वातावरण के संकल्प सिद्धि की निहायत जरूरत हैं।
 दरअसल, स्वच्छता ही सेवा सरकार का नहीं वरन् हमारा भी नैतिक कत्र्तव्य व सरोकार हैं, तभी यह महाभियान अखबारों और कागजों से हटकर जमीं पर आएगा। क्यां हम इस जवाबदेही का निर्वहन कर पा रहे हैं? कदाचित नहीं! उलटे हम अस्वच्छता के प्रतिकार बनकर निर्लज्जता से मान मर्यादा को तार-तार कर बडी शान से सडको के किनारे, भवनो के पीछे, खेल के मैदान में शौच और मूत्र दान में तलीन रहते है। शर्मसारता की ग्लानि! हमें आज पर्यन्त तक नहीं हुई ना जाने क्यांे? बरबस प्रसिद्धी और सत्ता की लालसा में बडी बेषर्मी से सफाई की चैखट में सेल्फी नाटक करते आ रहे हैं। बेरूखी में मंुह दिखाई की रस्मअदाएगी, एक हाथ में झाडू और एक हाथ में मोबाईल थामने सेे गदंगी नहीं हटेगी वरन् नौटकी के पटाक्षेप, श्रमदान, अंतर्मन और सफाई की साफगोई से मिटेगी। साथ ही शून्य कचरा प्रबंधन, अपषिष्टों का पृथक्करण और गोबर की भांति हक जताकर कृषि खाद्य तथा घरेलु गैस के लिए अवषेषों का समुचित उपयोग करना होगा। ऊर्धावरोहण, अतिरिक्त आय के अलावा वृक्षारोपण व संरक्षण की दृढवादिता से चमन गुलजार रहेगा।                           

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